देखो हम कहाँ से चल करके
किस दौर में आकर ठहरें हैं
खुशहाली सारी चली गयी
मंदिर मस्जिद पर पहरे हैं
ये बस्ती बनी बहेलियों की
सब ताक लगाए बैठे हैं
फ़रियाद करोगे किससे तुम
सब अपने गुरुर में ऐठे हैं
अब खडी अदालत की मूरत
रो रो कर सहमी जाती है
जब फांसी कतली ना पाए
और लुटी गरीब की थाती है
कहने को है ये प्रजातंत्र
पर तानाशाही का कोहरा है
जिस शासन को है जिम्मेदारी
वो शासन बिलकुल बहरा है
दीपक
कुमार मिश्र “प्रियांश”
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