ना ही तुम्हे कल तो मै जानता था
ना ही तुम्हे कल मै पहचानता था
मिले कब थे कैसे और किस राह पर हम
न अब जानता हूँ न कल जानता था
सूरत तुम्हारी थी मन को मेरे भायी
तेरी अदाएं थी मन को लुभायी
पहली नजर में हुआ कायल मै तेरा
यहीं जानता हूँ यहीं जानता था
खुदा की थी मर्जी सो उसने मिलाया
मोहब्बत में तेरे वो जीना सिखाया
था किस्मत में लिखा खुदा ने तुम्ही को
यहीं जानता था यहीं जानता हूँ
bahut umda rachna hai.
ReplyDeleteये कैसी प्रीत है भगवन जो हमको ही सताती है
ReplyDeleteमिलन की आग की ज्वाला हमें ही क्यों जलाती है|
अरे सब लोग कहते है मै तुमसे प्यार करता हूँ
मगर तू ही नहीं कहती ये कैसी बात होती है ।|
मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर उम्दा रचना है दीपक भाई
ReplyDeleteबहुत खूब..!!
ReplyDeleteसादर |