कांटे मिलई हर राह में, देहि बहुत बिधि पीर |
झेलत जे चलि जात है , पाछे पावै हीर ||१||
दीमक के जे वास दे , करहिं आपना नाश |
दीमक के बसि जाये से , मिले न सुख के सास ||२||
अब तो साधु स्वार्थ बस, देत फिरे उपदेश |
स्वार्थ के साधे बिनु, साधु चले प्रदेश ||३||
मातु पिता गुरु सेवा के, फल काटे कष्ट हजार |
तीनहुं के जो सेवत है, तरी जाता संसार ||४||
जे जग के सेवक बने, आपन करहिं सुधार |
सुधरत तोहके देखि के, सुधरे लोग हजार ||५||
दीपक खुद के जारि के, सबके देत प्रकाश |
नीचे कालिख देख के , दीप न होत उदास ||६||
शीतल या फिर उबलत जल, आगी देत बुझाय |
जीवन के सुख दुःख में , नाही छोड्यो सुभाय ||७||
दीपक के जरि जाये से, भागे दूर अन्हार |
दीपक के छुई जाये से, नाही बचे ओसार ||८||
लागी प्रीत न छूटई , बिनु प्रिया कुछ न बुझाई |
दीपक प्रिया के बिनु, मोहे कुछ ना सुहाई ||९||
आपन स्वार्थ साधे बिनु, बोलई सब चुचलाय |
स्वार्थ सीधा होत ही, सबहिं जाय भुलाय ||१०||
स्वार्थ के इ दुनिया, स्वार्थ के सब साथ |
स्वार्थ के डग छूटते , रही जाई खली हाथ ||११||
एहिं संसार में मिलई, सुख में साथी हजार |
लागी बरई घर आपना, केहु ना लगी गुहार ||१२||
कचड़ा भी माटी मिलई, यह तन भी मिल जाय |
काम करइ कुछ ऐसनई ,नाम चालत चली जाय ||१३||
सुख दुःख अइसन साथ है, एक आवई एक जाई |
सुख दुःख में जे सम रही, उ सज्जन कही जाई ||१४||
काम न कुछ अइसन करई, जग बोलई गरियाय |
केहूँ के कुछ एस न करई, उ रोवई विललाय ||१५||
झेलत जे चलि जात है , पाछे पावै हीर ||१||
दीमक के जे वास दे , करहिं आपना नाश |
दीमक के बसि जाये से , मिले न सुख के सास ||२||
अब तो साधु स्वार्थ बस, देत फिरे उपदेश |
स्वार्थ के साधे बिनु, साधु चले प्रदेश ||३||
मातु पिता गुरु सेवा के, फल काटे कष्ट हजार |
तीनहुं के जो सेवत है, तरी जाता संसार ||४||
जे जग के सेवक बने, आपन करहिं सुधार |
सुधरत तोहके देखि के, सुधरे लोग हजार ||५||
दीपक खुद के जारि के, सबके देत प्रकाश |
नीचे कालिख देख के , दीप न होत उदास ||६||
शीतल या फिर उबलत जल, आगी देत बुझाय |
जीवन के सुख दुःख में , नाही छोड्यो सुभाय ||७||
दीपक के जरि जाये से, भागे दूर अन्हार |
दीपक के छुई जाये से, नाही बचे ओसार ||८||
लागी प्रीत न छूटई , बिनु प्रिया कुछ न बुझाई |
दीपक प्रिया के बिनु, मोहे कुछ ना सुहाई ||९||
आपन स्वार्थ साधे बिनु, बोलई सब चुचलाय |
स्वार्थ सीधा होत ही, सबहिं जाय भुलाय ||१०||
स्वार्थ के इ दुनिया, स्वार्थ के सब साथ |
स्वार्थ के डग छूटते , रही जाई खली हाथ ||११||
एहिं संसार में मिलई, सुख में साथी हजार |
लागी बरई घर आपना, केहु ना लगी गुहार ||१२||
कचड़ा भी माटी मिलई, यह तन भी मिल जाय |
काम करइ कुछ ऐसनई ,नाम चालत चली जाय ||१३||
सुख दुःख अइसन साथ है, एक आवई एक जाई |
सुख दुःख में जे सम रही, उ सज्जन कही जाई ||१४||
काम न कुछ अइसन करई, जग बोलई गरियाय |
केहूँ के कुछ एस न करई, उ रोवई विललाय ||१५||
वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteशानदार दोहे लिखे है दीपक भाई
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